Saturday, March 28, 2009

* नियम और शर्ते लागू

राजनीति के बाजार में आजकल नए - नए प्रोडक्ट सामने आ रहे है. मतदाताओं को उपभोक्ता समझ कर राजनीतिक पार्टियाँ लुभावने नारों के साथ मनभावन योजनायें भी पेश कर रही है. कांग्रेस कह रही है कि हमको वोट करोगे तो तीन रुपये किलो अनाज देंगे........वहीँ बीजेपी के पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण अडवाणी तो देश भर के मोबाइल उपभोक्ताओं को एसएमएस करके शपथ ले रहे हैं कि अब हर लाडली लक्ष्मी होगी.......बस वोट हमको देना.

देश के इस आम चुनाव में राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव प्रचार के लिए मल्टी नेशनल कंपनियों जैसा तौर-तरीका अपनाया है लेकिन वे अपनी लोक-लुभावन योजनाओं का प्रचार करते समय -" नियम और शर्ते लागू " लिखना भूल गयी है.अमूमन कारपोरेट घराने अपने प्रोडक्ट का विज्ञापन करते समय जब कोई योजना सामने लाते है तो उसमे स्टार ( * ) लगाकर " नियम और शर्ते लागू " लिखना कभी नहीं भूलते. दरअसल योजना बताई कुछ और जाती है लेकिन उसके भीतर का सच कुछ और होता है.

ऐसा ही कुछ कांग्रेस और बीजेपी की योजनाओं में भी छिपा है. न तो कांग्रेस सत्ता में वापस लौटने पर देश के हर गरीब को तीन रुपये किलो अनाज दे सकती है और न ही बीजेपी के पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण अडवाणी देश की हर लड़की को एक लाख का चेक देकर लाडली लक्ष्मी बना सकते है.चुनाव जीतने के तत्काल बाद ही ये दल गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगे और उपभोक्ता बाजार की तरह इनकी योजनाओं में भी " नियम और शर्ते लागू " हो जाएँगी.सरकार बनाने के बाद कांग्रेसी कहेंगे कि लाल, पीले, नीले राशन कार्ड वालों को ही तीन रुपये किलो अनाज मिलेगा. अब बेचारा गरीब आदमी ऐसे कार्ड बनवाने के लिए ही भटकता रहेगा.बीजेपी की लाडली लक्ष्मी योजना फ़िलहाल मध्य प्रदेश में चल रही है लेकिन इसमें भी एक फंडा है कि जो इंकम टैक्स चुकाता है उसे इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा.कुछ ऐसी ही शर्त अडवाणी जी भी लगा देंगे.

नेताओं के भाषण, रैली और क्रियाकलापों पर नुक्ताचीनी करने वाले निर्वाचन आयोग को ये भी देखना चाहिए कि राजनीतिक दल और उसके नेता मतदाताओं को अपनी गलत या आधी-अधूरी लोक-लुभावन योजनाओं से प्रभावित करने की कोशिश न करें.राजनीतिक दलों को यदि अपने पोलिटिकल प्रोडक्ट में कुछ छिपाना भी है तो कृपया " नियम और शर्ते लागू " जरूर लिखे.ताकि मतदाता भ्रमित न हो और अपने लिए सही पोलिटिकल प्रोडक्ट का चयन करके वोट करे.

Wednesday, March 25, 2009

टूटे मंदिर - मस्जिद पर न हुआ दंगा

6 दिसम्बर 1992.... कभी न भूलने वाला वो दिन...... अयोध्या में कारसेवकों का जत्था कूच कर रहा था उस विवादित ढांचे की ओर , जिसे हिन्दू रामजन्म भूमि बताते है तो मुसलमान बाबरी मस्जिद.हमने वो मंजर देखा तो नहीं था लेकिन जैसा कि उस समय के गिनती के टीवी चैनल ने दिखाया और बताया था, कुछ भी शेष न छोड़ने की तैयारी थी.असल में वो रामजन्म भूमि है या बाबरी मस्जिद, हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं क्योंकि अभी तक देश की सर्वोच्च अदालत भी नहीं बता पायी है कि वास्तव में यहाँ था क्या? लेकिन उस विवादित ढांचे के गिरा दिए जाने से इस देश ने मुंबई बम विस्फोट के रूप में जो दर्द देखा और भोगा है, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता है.सैकडों लोगों की जान चली गए. हजारों लोग जख्मी हुए.लोग अपाहिज हो गए.किसी का पति चला गया तो किसी का बेटा.इन दोनों घटनाओं के बाद से देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नयी राजनीतिक धारा का उदय हुआ.

अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये......अयोध्या से साढ़े पांच सौ किलोमीटर दूर एक शहर है जबलपुर.ये आचार्य रजनीश, महर्षि महेश योगी का शहर है. ये महान व्यंग शिल्पी हरिशंकर परसाई का शहर है.अब यहाँ की एक और खासियत बता देतें है. यहाँ एक दिन भगवान राम का मंदिर गिराया जाता है तो दूसरे दिन किसी बाबा या औलिया की मजार तोड़ दी जाती है.जैन मंदिर और गिरिजाघर भी नहीं बचे हैं इस तोड़-फोड़ से.तब तो आप कहेंगे कि इस शहर में रोज दंगे होने चाहिए.....बम धमाकों की गूँज कभी बंद ही नहीं होनी चाहिए......यहाँ तो लाशों के ढेर लग जाने थे.........किन्तु आपको बता दें कि यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.गौर करने वाली बात ये भी है कि पुलिस और प्रशासन के साथ यहाँ के लोग भी इन धर्मं स्थलों को तोड़ने में जुट जाते है.

हो सकता है कि अयोध्या और जबलपुर की तुलना किसी को पसंद न आये.लेकिन जब सवाल धार्मिक आस्था का हो तो इससे फर्क नहीं पड़ता है कि पूजा स्थल छोटा है या बड़ा.इस देश में अक्सर धार्मिक प्रतीकों से छेड़छाड़ बड़े विवाद की वजह बन जाती है. फिर जबलपुर में ऐसा क्या हुआ कि 300 से ज्यादा पूजा स्थल तोड़ दिए गए और शहर अपनी रफ्तार से या कहें कि पहले से भी तेज गति से चलने लगा.इसका श्रेय जाता है यहाँ के अमन पसंद और समझदार नागरिकों को. वैसे तो सड़क या सार्वजनिक स्थानों पर बने मंदिर-मजार या अन्य पूजा स्थल सबको तकलीफ देते थे किन्तु धार्मिक मामला समझ कर कोई कुछ कहता नहीं था.एक सामाजिक कार्यकर्ता सतीश वर्मा को सड़क पर अतिक्रमण का रूप लेकर खड़े ये पूजा स्थल अखरने लगे तो उसने हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगा दी.सतीश वर्मा ने खुद मेहनत करके 566 पूजा स्थल चिन्हित किये जो यातायात में बाधा उत्पन्न कर रहे थे.

इस विषय पर हाई कोर्ट भी गंभीर हो गया और उसने इन सभी धार्मिक स्थलों को हटाने के निर्देश दे दिए.लेकिन कोर्ट के आदेश से प्रशासन की पेशानी पर बल पड़ गए.क्योंकि उसके लिए एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति हो गयी.यदि वो मंदिर-मजारों पर सीधे बुलडोजर चला देता तो शहर में हालात बिगड़ सकते थे और यदि कार्यवाई नहीं करता तो फिर कोर्ट का कोड़ा उसे नहीं छोड़ता.अपने अधिकारों के रौब में कोई गलत फैसला लेने की बजाय उसने समझदारी से काम लिया.सभी धर्म के गुरुओं के साथ आपसी समझ बना कर प्रशासन ने सा-सम्मान पूजा स्थलों को हटाने की कार्यवाई एक बार जो शुरू की तो वो पूरे देश के लिए मिसाल बन गयी.सड़क और सार्वजनिक उपयोग के स्थानों में बाधक बन रहे इन पूजा स्थलों को हटाने की करवाई पिछले दो साल से चल रही है और इसमें न तो हिन्दू को आपत्ति है और न ही मुसलमान को.अब तक 302 धार्मिक अतिक्रमण हटाये जा चुके है.इसमें मंदिर और मजार के साथ दो ईदगाह ,एक चर्च तथा एक जैन मंदिर का अतिक्रमण भी शामिल है.बाकी के धर्मं स्थल हटाने की कार्यवाई भी निरंतर चल रही है.

मैंने जबलपुर की पहचान बताने के लिए महान व्यंग शिल्पी हरिशंकर परसाई जी का भी जिक्र किया था.उनके पास तो अयोध्या के विवाद का हल भी था . वे कहते थे न मंदिर बनाओ और न मस्जिद, वहां .........बना दो जिसका उपयोग सब कर सकें.लेकिन वे ठहरे व्यंग के चितेरे, सो उनका नजरिया विवाद को हलके ढंग से लेने का था, तभी वो हर बात को मजाकिया अंदाज में कहते थे.आज हरिशंकर परसाई जी जीवित होते तो जबलपुर में मंदिर-मस्जिद हटाने की कार्यवाई पर कोई न कोई रचना जरुर लिखते.जबलपुर के लोग भी अयोध्या को बड़ा गूढ़ सन्देश दे रहे है.वे कह रहे है - मानवता और लोकहित किसी भी पूजा स्थल से बड़े नहीं है.

हाय री किस्मत

एक दिन किसी अख़बार में खबर छपी कि जबलपुर से फिल्म स्टार आशुतोष राणा कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे.इस खबर ने नेशनल टीवी के हम जैसे पत्रकारों की बांछें खिला दी. मन ही मन समीकरण बैठाने लगे कि एक दिन आशुतोष को नर्मदा पूजा करवा देंगे तो बढ़िया खबर बिक जायेगी.किसी दिन मंदिर में अर्जी लगवा देंगे तो फिर खबर चल जायेगी.राणा जी का एकाध दिन का प्रचार तो बिक ही जायेगा. और अगर उनकी फिल्म स्टार पत्नी रेणुका शहाने प्रचार के मैदान में कूदीं तो शर्तिया एक खबर और बन जायेगी.ये भी सोचने लगे कि आजकल आचार संहिता के उल्लंघन का मामला बहुत चल रहा है. यदि आशुतोष राणा ने धोखे से भी आचार संहिता का उल्लंघन कर दिया तो खबरों की संख्या बढ़नी निश्चित है.लेकिन हाय री किस्मत......मंदी के इस दौर में हम नेशनल टीवी पत्रकारों का राजनीतिक दलों ने भी ध्यान नहीं रखा.बीजेपी और कांग्रेस ने ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतार दिया है जिनको लेकर टीआरपी के लिए परेशान रहने वाले नेशनल टीवी चैनलों में तो बेरुखी है ही, मतदाता भी कुछ खास उत्साहित नहीं है. इतना ही नहीं आस-पास की सीटों में भी न तो कोई बड़ा नाम है और न ही कोई ग्लैमरस चेहरा जिसके सहारे ही हम लोग दो - चार खबरें बेच सकें.लोकसभा चुनाव के दौरान हम जैसे पत्रकार छुट्टी पर भी नहीं जा सकते क्योंकि भोपाल और दिल्ली आफिस से रोज पूछा जायेगा कि आपके क्षेत्र में क्या चल रहा है ? खबर एक नहीं लेंगे लेकिन इतना जरुर कहेंगे कि नजर रखना.कुछ छूटने न पाए. अब तो यही लग रहा है कि दिल्ली से आने वाले अपने चैनल के बड़े नाम वाले रिपोर्टरों की जी-हुजूरी में ही पूरा चुनाव निकल जायेगा.

Tuesday, March 24, 2009

पीपल बाबा को मिला साथी

लीजिये, वेंटिलेटर पर टिके बूढे पीपल बाबा अब अकेले नहीं रहे. उन्हें एक और साथी मिल गया है.१५० साल के बूढे पीपल के दरख्त के सफल स्थानांतरण से उत्साहित जबलपुर नगर निगम ने पीपल के एक और पेड़ को पुनर्स्थापित करने की कोशिश की है.करमचंद चौक के पीपल बाबा के बाद घमापुर चौक के एक और साल पुराने पीपल के दरख्त को श्रीनाथ की तलैया के पार्क में नया ठिकाना दिया गया है.अब पीपल को दोनों दरख्त श्रीनाथ की तलैया के पार्क में एक साथ नयी कोपलों के फूटने का इंतजार करेंगे.

Saturday, March 21, 2009

धन्यवाद मनुष्य

मैं एक पीपल का दरख्त हूँ.लोग मुझे एक सौ पचास साल का बूढा बता रहे है.लेकिन सच कहूं तो मुझे भी मेरी सही उम्र नहीं मालूम क्योंकि हमारी दुनिया में मिनट, घंटे, दिन, हफ्ते और साल का कोई गणित आज तक नहीं बन सका है.मैं आजकल बड़ा इठला रहा हूँ. और कह रहा हूँ धन्यवाद मनुष्य. तुने अपनी सांसों का कर्ज उतार दिया है. एक दरख्त मनुष्य का धन्यवाद करे, ये बात बड़ी अटपटी लगती है लेकिन जब मैं आपको पूरी कहानी बताऊंगा तो आप भी कहेंगे कि मनुष्यों ने वाकई काबिले-तारीफ काम किया है.

मेरा ठिकाना जबलपुर के करमचंद चौक पर हुआ करता था.वैसे एक बात बताऊँ - इस जगह का करमचंद चौक नाम तो कुछ सालों पहले पड़ा वर्ना जब मैंने भूमि के भीतर से अंकुरण लेकर आसमान को छूने की असफल कोशिश की थी , तब यहाँ कुछ नहीं था.पथिक मेरी छाँव का सहारा लेकर सुस्ताते थे तो बच्चे मेरे पीछे आँख-मिचौली का खेल खेलते थे.सन ४७ के पहले मैंने आजादी के मतवालों का जोशो-जूनून भी देखा था कि कैसे वे अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगाने को तैयार रहते थे.देश आजाद हुआ और मैंने भी देश के आम मनुष्यों की तरह आजादी की सुकून भरी हवा को महसूस किया.

आजादी के बाद विकास की बात चली तो मैंने भी आधे-अधूरे विकास को देखा और उसके दुष्परिणाम को भोगा.हवा-पानी के तूफ़ान और मनुष्यों की झूठी शान के बीच मैं सीना तान कर इसी करमचंद चौक पर खडा रहा.मेरी छाँव में एक मंदिर बन गया और सुबह - शाम देवताओं की पूजा होने लगी.पीपल का दरख्त था और मनुष्य मानते है कि पीपल में देवता वास करते है , सो मुझे भी पूजा जाने लगा.फिर क्या था घमंड के मारे मैं दिनों-दिन और चौड़ा होने लगा.अपनी किस्मत पर इसलिए भी गुमान करने लगा कि इस देश में सब कुछ किया जा सकता है लेकिन मंदिर-मस्जिद को कोई हाथ तक नहीं लगा सकता है,फिर भले ही वो सड़क में ही क्यों न बने हों.मेरी छाँव में बना मंदिर मेरी सुरक्षा की गारंटी बन गया था.


लेकिन एक दिन मेरा सारा गर्व और दंभ जाता रहा, जब मैंने देखा कि मेरी छाँव में बने मंदिर से देवी-देवता पूजा-पाठ के बाद रुख्सत हो रहे है.मेरे कानों तक भी ये आवाज पहुंची कि सड़क चौडी करने के लिए पीपल के इस दरख्त को काटना होगा.ये सुनते ही मनुष्यों को सांसे देने वाले मुझ बूढे दरख्त की सांसे उखड़ने लगी.लगा की अब कुछ ही दिन का मेहमान रह गया हूँ.मेरी भी नियति विकास के नाम पर कत्ले-आम किये गए बाकी दरख्तों की तरह ही होगी.शायद आप को पता ही होगा कि कभी ये धरती पूरी तरह से हरियाली की चादर ओढे हुए थी, किन्तु मनुष्यों ने हम वृक्षों के साथ विकास के नाम पर ऐसी दुश्मनी निकाली कि आज हमारे साथ उसके अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है. अब मैं आप को बताता हूँ कि हमारी बिरादरी पर लाखों सालों से हुए अत्याचार के बावजूद मैं क्यों मनुष्यों को धन्यवाद कर रहा हूँ.पता नहीं जबलपुर की महापौर सुशीला सिंह को ये सदबुद्धि कहाँ से मिली जो उन्होंने मुझे काट कर अलग कर देने के आसान रास्ते की बजाय नए ठिकाने पर नव-जीवन देने की ठान ली.विशेषज्ञों की राय ली गयी.तय किया गया कि पहले मुझे कांट-छाँट कर छोटा किया जाये. दो महीने पहले मेरी कटाई-छंटाई शुरू हुयी.कपडे धोने वाले साबुन के विज्ञापन-''दाग अच्छे है''.....की तर्ज पर मैंने भी कहा - ''जख्म अच्छे है.''

कटाई - छंटाई के बाद दो माह तक मेरे शरीर से नयी कोपलें फूटने का इंतजार किया गया.जख्म मिलाने के बावजूद जब मेरे शरीर से हरियाली फिर फ़ुट पड़ी तो फिर शुरू हुयी मेरे नव जीवन की यात्रा.ये यात्रा इतनी कठिन थी कि कई बार मुझे भी लगा- मुकाम तक पहुँचने के पहले ही इस सफ़र का अंत न हो जाये और मेरी नियति भी बिरादरी के बाकी दरख्तों की तरह सूख कर चूल्हे में जलने की न हो जाये.धन्य है जबलपुर नगर निगम के वे जुझारू कर्मचारी, जिन्होंने आखिरी समय तक हिम्मत नहीं हारी.छोटी क्रेन काम नहीं आयी तो बड़ी क्रेन मंगाई गयी.छोटा ट्रक मेरे भार से टूट गया तो बड़ा ट्रेलर मंगाया गया.हाँ, यहाँ मैं इन क्रेन और ट्रक-ट्रेलर को भी धन्यवाद दूंगा- जो भले ही आज के समय में पर्यावरण और हरियाली के सबसे बड़े दुश्मन है , जिनकी मदद के बिना मैं अपने नए मुकाम तक नहीं पहुँच सकता था.

ये यात्रा पूरे २८ घंटे की थी.पहले क्रेन की मदद से मुझे नीचे लिटाया गया और फिर मुझे दवा का लेप लगाया गया.इसके बाद ट्रेलर की पीठ पर सवार होकर मैं करमचंद चौक से करीब दो सौ मीटर की दूरी पर बने पार्क में पहुंचा.यहाँ पर मनुष्यों ने फिर मुझे यथोचित सम्मान दिया और पूजा - पाठ के बाद धरती माँ की गोद में बिठा दिया. हालाँकि अभी मैं सिर्फ एक ठूंठ ही नजर आता हूँ लेकिन मैंने अपने कानों से विशेषज्ञों की बातें सुनी है कि दो-तीन महीने में मेरे जख्मों से ही नयी कोपलें फूट पड़ेंगी.अभी तो मैं लोगों के कौतुहल का विषय हूँ.लोग ये देखने आ रहे है कि नए ठिकाने पर मैं कैसा लगता हूँ.लोग जब मुझे छूते है तो अपनापन सा लगता है.कुछ दिन पहले तक यही मनुष्य मुझे दुश्मन नजर आते थे.

मैं बूढा दरख्त अब भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि कुछ दिन के लिए ही सही, मेरे शरीर में जवानी का जोश ला दे. मुझे फिर से हरा-भरा कर दे ताकि मनुष्यों द्वारा किया गया ये प्रयास व्यर्थ न जाये.कोई मुझे स्वार्थी न समझे. भगवान से ये कामना मैं अपने लिए नहीं कर रहा हूँ. मैं तो १५० बरस जी चुका हूँ. इस दुनिया में न भी रहूँ तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा.फर्क पड़ेगा उन दरख्तों को जिनकी नियति विकास के नाम पर बलि चढाने की है.यदि मुझमे फिर से नव-जीवन का संचार होगा तो मनुष्य अपने प्रयास पर मगन होते हुए, दरख्तों को काटने की बजाय नया ठिकाना देने के लिए सोचने लगेगा.और इसी में सृष्टि तथा मानवता की भलाई है.
..................... भविष्य में मेरे साथ क्या घटा, मैं ये भी आपको जरुर बताऊंगा....................आपका पीपल बाबा